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आ॒रे अ॒स्मदम॑तिमा॒रे अंह॑ आ॒रे विश्वां॑ दुर्म॒तिं यन्नि॒पासि॑। दो॒षा शि॒वः स॑हसः सूनो अग्ने॒ यं दे॒व आ चि॒त्सच॑से स्व॒स्ति ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āre asmad amatim āre aṁha āre viśvāṁ durmatiṁ yan nipāsi | doṣā śivaḥ sahasaḥ sūno agne yaṁ deva ā cit sacase svasti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒रे। अ॒स्मत्। अम॑तिम्। आ॒रे। अंहः॑। आ॒रे। विश्वा॑म्। दुः॒ऽम॒तिम्। यत्। नि॒ऽपासि॑। दो॒षा। शि॒वः। स॒ह॒सः॒। सू॒नो॒ इति॑। अ॒ग्ने। यम्। दे॒वः। आ। चि॒त्। सच॑से। स्व॒स्ति ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:11» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:11» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसः) बलवान् के (सूनो) सन्तान और (अग्ने) अत्यन्त विद्वान् (यत्) जिससे आप (देवः) ईश्वर के सदृश (अस्मत्) हम लोगों से (आरे) दूर (अमतिम्) मूर्खपन को (आरे) दूर (अंहः) पापकर्म को और (आरे) दूर (विश्वाम्) समग्र (दुर्मतिम्) दुष्ट बुद्धि को निरन्तर अलग करा (यम्) जिसकी (निपासि) अत्यन्त रक्षा करते हो उसको (शिवः) मङ्गलकारी हुए (दोषा) रात्रि और दिन में (चित्) भी (स्वस्ति) सुख को (आ, सचसे) सम्बन्ध कराते हो, इससे हम लोगों से पूजा करने योग्य हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - यह हम लोग निश्चय करते हैं कि जो लोग हम लोगों को अधर्मी और दुष्ट बुद्धिवाले पुरुष से दूर करते हैं, वे ही दिन-रात्रि हम लोगों से सत्कार करने योग्य हैं ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि, राजा और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥ यह ग्यारहवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे सहसः सूनोऽग्ने ! यत्त्वं देव इवाऽस्मदारे अमतिमारे अंह आरे विश्वां दुर्मतिं निक्षिप्य यं निपासि तं शिवः सन् दोषा दिवसे चित्स्वस्ति आ सचसे तस्मादस्माभिः पूज्योऽसि ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आरे) दूरे (अस्मत्) (अमतिम्) (आरे) (अंहः) पापात्मकं कर्म (आरे) (विश्वाम्) समग्राम् (दुर्म्मतिम्) दुष्टां प्रज्ञाम् (यत्) यतः (निपासि) नितरां रक्षसि (दोषा) रात्रौ (शिवः) मङ्गलकारी (सहसः) बलवतः (सूनो) अपत्य (अग्ने) परमविद्वन् (यम्) (देवः) जगदीश्वर इव (आ) (चित्) अपि (सचसे) सम्बध्नासि (स्वस्ति) सुखम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - इदं वयं निश्चिनुमो येऽस्मान् दुष्टाचारादधर्मसङ्गाद् दुर्बुद्धेर्दूरेकुर्वन्ति त एवाऽहर्निशमस्माभिः सत्कर्त्तव्याः सन्तीति ॥६॥ अत्राग्निराजविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥६॥ इत्येकादशं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - आम्ही हा निश्चय करतो की, जे लोक आम्हाला अधर्मी व दुष्ट बुद्धीच्या पुरुषापासून दूर करतात त्यांचाच सदैव आम्ही सत्कार करावा. ॥ ६ ॥